मनुष्य ने दुनिया के लगभग सभी रहस्यों से पर्दा हटा लिया है। प्रक्रिति भी एक रहस्य है जिसे सुलझाने में स्वयं नये-नये रहस्य सामने आ जाते हैं जिसके पीछे हम लगे रहते हैं और हम ये नही है कि हम अपने पीछे क्या-क्या छोड़ आये हैं। हम मानव सद्भाव, प्रेम, हास्य, योग, स्वास्थ्य इत्यादि से हम अलग हो गये हैं।
कविवर 'रामधारी सिंह दिनकर' अपनी रचना "अभिनव मनुष्य" के द्वारा हमें यही उपरोक्त बातें अपनी रचना से कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं-
धर्म का दीपक, दया का दीप,कब जलेगा,कब जलेगा,विश्व में भगवान?
कब सुकोमल ज्योति से अभिषिकत-
हो, सरस होंगे जली-सूखी रसा के प्राण?
कवि कहते हैं कि हे प्रभू! जगत में दया और धर्म का प्रसार कब होगा और दया, धर्म की कोमल ज्योति से सिंचित होकर ईर्ष्या द्वेष आदि बातों से संत्रिप्त वसुधा कब सरस होगी। धरती पर अम्रित की धारा बहुत बरस चुकी किन्तु यह धरती अभी भी शीतल न हो सकी। यह अभी तक दग्ध हो रही रही है। घ्रिणा, विद्वेष, ईर्षा, पापाचार इस धरती पर अभी भी व्याप्त है और मानव के मन में धन-वैभव एवं काम सुखों की भोगलिप्सा उद्दाम भाव से लहरा रही है। पाशविक व्रित्तियों का शमन अभी तक मानव नही कर पाया है। अभी भी हमें मानव-मूल्यों की खोज है। मानवीय भावनाओं की कोई कदर नही है, सर्वत्र धन-लिप्सा का बोलबाला है।
कविवर 'दिनकर' जी अपनी क्रिति के माध्यम से कहते हैं -भीष्म हों अथवा युधिष्ठिर, या कि हों भगवान,
बुध्द हों कि अशोक, गांधी हों कि ईसु महान;
सिर झुका सबको,सभी को श्रेष्ठ निज से मान,
मात्र वाचिक ही उन्हें देता हुआ सम्मान,
जा रहा मानव चला अब भी पुरानी राह।
कवि कहते हैं कि आज का मनुष्य भीष्म, युधिष्ठिर, क्रिष्ण, बुध्द, अशोक ईसा मसीह तथा गांधी सबको अपने से श्रेष्ठतर मानकर भी उन्हें अपने ह्रदय से इस कर्ममय संसार में समादर नही देता, बल्कि केवल वचनों से ही उसका सम्मान करता है। मात्र उनके वचनों का ही उदघोष करता है, उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलता नहीं। वह दूसरों को दु:खी करते हुए स्वयं भी दु:ख भोगता है।
संकलन कर्ता- (दीपेश कुमार मौर्य, शकरमण्डी जौनपुर )
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