रविवार, 12 अक्तूबर 2008

हमारा स्वर्णिम हिन्दी साहित्य

भारत अब वह स्वर्णिम स्वप्न के समान है जैसा उसे सोने की चिड़ियाँ कह के पुकारा जाता था।यह कथन कहना शायद अनुचित नही है कि भारतीय छात्र अपने साहित्य को भूल रहे हैँ।
आज वर्तमान समय मेँ यदि गौर किया जाये तो छात्र जीवन कम्प्यूटर हार्डवेयर और साफ्टवेयर की पढायी की ओर अधिक प्रेरित हो रहे हैँ। देखा जाये तो कम्प्युटर और इनसे सम्बन्धित सभी उपकरण समयानुसार सही है,लेकिन इसके साथ हमेँ अपनी भाषा और साहित्य को कभी भूलना नही चाहिए। छात्र जीवन से साहित्य का समाप्त हो जाना ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार जल बिना मछली। प्रेमचंद,निराला,महादेवी वर्मा आदि साहित्यकारोँ ने हमे निबन्ध,कविता,कहानी,संस्मरण,लेख आदि का अनुपम प्रकाशमय भण्डार हमेँ दिया है जिससे हमेँ समाज,विश्व,पर्यावरण,मनुष्य के बारे मेँ साक्षात् दर्शन होते हैँ। शायद साहित्य ने ही अरस्तू के मन मेँ एक गहरी छाप छोड़ी होगी जिसकी वजह से उन्हेँ कहना पड़ा 'साहित्य समाज का दर्पण है।' माना कि इस समय कम्प्यूटर की पढ़ायी जरूरी है लेकिन इण्टरनेट पर भी तो हिन्दी साहित्य के अथाह भण्डार भरे हुये हैँ और आप इन्हेँ पढ़ भी सकते हैँ। प्रेमचंद का गबन हमेँ सामाजिक जीवन से मिलाता और निर्देशित करता है। रामधारी सिँह दिनकर का 'अभिनव' मनुष्य' हमेँ भूत,वर्तमान और भविष्य के सरोवर मेँ विहार कराता है।इस प्रकार भारत का यह अनूठा साहित्य हमारे ह्रदय मेँ एक ठंडी अग्नि प्रज्वलित करता है। अत: साहित्य चाहे कोई भी हो चाहे वह भारतीय हो या अन्य किसी देश की सभी मेँ कोई ना कोई बोध रूपी प्रकाशपुंज अवश्य प्रकाशित होता है।
अगर कुछ नही तो साहित्य को ही अपना लेँ तो वह सोने की चिड़ियाँ भारत मेँ जरूर बसेरा करेँगी जो अब स्वर्णिम स्वप्न हो गया है।
------- दीपेश कुमार मौर्य(बी॰ए॰भाग 2)
आर0 एस0 के0 डी0 पी. जी. कालेज, जौनपुर